सीमा सिंह स्वस्तिका, असम
“असम भारत के कुल उत्पादित चाय का 51% योगदान देता है। चाय की वजह से ही भारत और समूचे विश्व में असम का नाम ऊंचा है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि चाय को एमएसपी ना मिलने के कारण चाय उद्योग प्रतिकूल परिस्थितियों से गुजर रहा है। आज के इस महंगाई के जमाने में जहां बाकी सभी चीजें महंगी हो गई है चाय को उसके लागत के हिसाब से मूल्य नहीं मिल रहा है।”
चाय, चा, चाह,कहवा या फिर कुछ और, भारत की लोकप्रिय पेय को चाहे किसी भी नाम से पुकारा जाए,स्वाद उसका हमेशा वही रहता है; कड़क और ताजगी भरा। भारत में चाय की लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक एवं कच्छ से लेकर कछार तक बहुत कम ही घर ऐसे होंगे जहां सुबह की शुरुआत चाय से ना होती हो। दीगर है कि चाय को अभी तक राष्ट्रीय पेय घोषित नहीं किया गया है।
चाय की खोज को लेकर विश्व में अलग-अलग मान्यताएं प्रचलित हैं। जिसमें सर्वमान्य धारणा यह है जिसे रॉबर्ट सिली ने अपने मोनोग्राफ में लिखा है। उनके मुताबिक चाय सबसे पहले चीन के यूनान प्रदेश में पाया गया पौधा है। चाय की तीन प्रजातियां हैं – चीनी (कैमलिया सीनेंसिस), आसामी (सी आसामिका) तथा कंबोडियाई (सी आसामिका एसएसपी (लेसिओकेलिक्स)। आसामी प्रजाति मूलतः असम के उष्ण इलाकों में पाई जाती है। इसके अलावा यह प्रजाति वर्मा ( म्यांमार) सियाम, इंडो-चाइना सीमांत तथा दक्षिणी चीन में पाई जाती है। उपरी असम, कछार (दक्षिणी असम) सिलहट (बांग्लादेश) खासी जयंतिया पहाड़ (मेघालय)तथा दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) में पाई जाने वाली चाय दरअसल सभी प्रजातियों के मिश्रण से बनाया गया हाइब्रिड है ।चाय का पौधा बीज एवं क्लोन से तैयार किया जाता है।
असम में चाय की खोज सबसे पहले 1823 ईस्वी में रॉबर्ट ब्रूस नामक एक अंग्रेज ने की।यहां के सिंफौ, खामति, देवनिया, मटक तथा नरह आदि आदिवासी जातियों में उस वक्त चाय का प्रयोग औषधि के तौर पर होता था। 1939 में सबसे पहले असम के चाबुआ नमक एक गांव में चाय की खेती की शुरुआत हुई। इसमें असम के किसान मनीराम देवान ने अंग्रेजों की बहुत मदद की। मनीराम बहुत बड़े जमींदार थे। लेकिन अंग्रेजों ने बाद में उनके साथ धोखा किया और उन्होंने बगावत भी की।
इसकी वजह से उन्हें जेल भी जाना पड़ा। कहते हैं कि इस जगह पर पहली बार चाय बोया गया इसीलिए इसका नाम पड़ा “चा-बुआ”। आज कल बाजार में कई प्रकार की चाय उपलब्ध है। आम तौर पर जो चाय हम पीते हैं उसे सीटीसी (crush, tear and curl) कहते हैं। यह चाय की पत्तियों को काट कर और सुखाकर बनाया जाता है। इसके अलावा आजकल ऑर्थोडॉक्स, ग्रीन टी, व्हाइट टी, येलो टी, ब्लैक टी तथा ओलोंग टी लोग खूब पी रहे हैं। इन सबमें ग्रीन टी की मांग बहुत ज्यादा है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यह चाय एंटी ऑक्सीडेंट से भरपूर है और वजन घटाने में काफी मददगार है।
गुणवत्ता के हिसाब से एक किलो चाय 150 रुपए से लेकर एक लाख रुपए तक बिकती है। यह मूल्य मूलतः निर्भर करता है चाय बनाने की प्रक्रिया एवं पत्तियों की गुणवत्ता के उपर। फैक्टरी से निकल कर चाय कोलकाता एवं गुवाहाटी स्थित निलामी सेंटर तक पहुंचती है जहां ब्रोकर इसका भाव तय करता है। इसके बाद टाटा, हिंदुस्तान लीवर, बाघ बकरी जैसी कंपनियां इन्हें खरीद कर अपने ब्रांड के हिसाब से पैकेजिंग करती हैं। इस प्रकार दो पत्ती और एक कली की यात्रा संपन्न होती है।
बराक घाटी असम का दक्षिणी इलाका है। इसमें कुल तीन जिले हैं – कछार करीमगंज और हैलाकंदी। यहां चाय की खेती सबसे पहले वर्षआंगन नामक गांव से शुरू हुई। आज की तारीख में बराक घाटी में लगभग 99 पंजीकृत चाय बागान है जिसमें 56 कछाड़ में, 24 करीमगंज में और 19 हैलाकंदी में है। टी बोर्ड ऑफ़ इंडिया के 2011 के आंकड़ों के मुताबिक बराक घाटी का 36412.18 हैकटेयर जमीन चाय की खेती के अंतर्गत है।
असम भारत के कुल उत्पादित चाय का 51% योगदान देता है। चाय की वजह से ही भारत और समूचे विश्व में असम का नाम ऊंचा है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि चाय को एमएसपी ना मिलने के कारण चाय उद्योग प्रतिकूल परिस्थितियों से गुजर रहा है। आज के इस महंगाई के जमाने में जहां बाकी सभी चीजें महंगी हो गई है चाय को उसके लागत के हिसाब से मूल्य नहीं मिल रहा है।
एक तथ्य यह भी है …
1975 में 1 किलो चाय की लागत 8.89 रुपए थी वहीं श्रमिकों का दैनिक वेतन था 3.20 रुपए और अन्य खर्च 0.56 रुपए। अर्थात कुल लागत 2.17 रुपए प्रति किलो। तब मुनाफा होता था 75.56%। वहीं 2020 में विक्रय मूल्य 139.65 हो गया। दैनिक वेतन प्रति श्रमिक हुआ 167 रुपए एवं अन्य खर्च 29.40 रुपए। यानी कुल लागत 113.41 रुपए। गौरतलब है कि अब मुनाफा घटकर 18.79% पर आ गया।
अब अगर 2024 के हालात देखें तो एक किलो चाय बिकी औसत 183.48 रुपए में। जबकि श्रमिकों का वेतन बढ़कर 250 रुपए हो चुका है जो कि सरकार तय करती है। अन्य खर्च हो गया है 44.02 रुपए। यानी कुल लागत 169.77 रुपए । मुनाफे का औसत घटकर 7.47 पर आ गया है। ऐसे में यदि किसी कंपनी का बैंक में ऋण है तो इतना पैसा तो बैंक ही ले ले रहा है। पिछले 50 सालों में विक्रय मूल्य का फर्क कम गया है। जहां विक्रय मूल्य 6.37% बढ़ा है वहीं दैनिक वेतन बढ़ा है 9.30%। जिसकी वजह से मार्जिन केवल 2.60% के हिसाब से बढ़ा है।
चाय बागान का दूसरा और बड़ी समस्या है प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली पैदावार की कमी और श्रमिकों का पलायन तथा अनुपस्थिति। ( स्रोत – टी इंडस्ट्री इन ए स्लो बोयल – पंकज कांकड़िया) यही वजह है कि पश्चिम बंगाल से लेकर असम तक चाय उद्योग बुरी तरह से मार खा रहा है। सरकारी प्रबंधन में चलने वाले चाय बागान तो कब के बंद पड़े हैं। निजी क्षेत्र द्वारा परिचालित चाय बागान भी ज्यादातर या तो बंद हो रहे हैं या रुग्ण अवस्था में चल रहे हैं।
ज्यादातर चाय बागानों में श्रमिकों का पीएफ देना बाकी है। संगठित क्षेत्र में होते हुए भी श्रमिक दोहरी जिंदगी जीने को मजबूर हैं। इन सबके लिए सरकार की नीतियां, बागान प्रबंधन की अनियमितता तथा श्रमिकों का आलस्य भी कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं। यह सच है कि सरकारें चाय श्रमिकों को बहुत कुछ मुफ्त में देती है लेकिन इसके पीछे वोट बैंक की नीति ही काम करती है। क्योंकि चुनाव में असम के चाय श्रमिक ही कई बार उम्मीदवारों के भाग्य निर्धारण में अहम भूमिका निभाते हैं। यदि यही धारा बरकरार रही तो हो सकता है कि भविष्य में केवल विदेशी ( श्रीलंका, चीन, जापान, आस्ट्रेलिया) चाय से ही हमें संतुष्ट होना पड़ेगा और असम की विरासत चाय इतिहास के पन्नों में सज कर रह जाएगी।
सीमा सिंह स्वस्तिका, कछार (असम)